जीवन का उद्देश्य क्या है?
इस कार्यक्रम में प्रोफेसर स्टीवन हॉकिंग की कमेंट्री और राय के जरिए ब्रह्मांड के निर्माण का लेखा-जोखा लिया गया है। हेलो, मैं स्टीवन हॉकिंग, एक भौतिकी शास्त्री, अंतरिक्ष वैज्ञानिक और एक स्वप्नदृष्टा। हालांकि मैं चल-फिर नहीं सकता और बात भी एक कंप्यूटर के जरिए करता हूं, लेकिन मेरे दिमाग की उड़ान बहुत तेज है, उसे किसी सहारे की जरूरत नहीं। मैं ब्रह्मांड से जुड़े हम सवालों के जवाब ढूंढता रहता हूं।
जीवन का अर्थ: एक अनूठा सवाल
जैसे कि… क्या जिंदगी का कोई मतलब है? क्या इस खूबसूरत, बेमिसाल दुनिया में हमारे वजूद की कोई वजह है? मैं पता लगाना चाहता हूं कि जिंदा होने का क्या मतलब है। जरा सोचिए, इंसान होने का मतलब, सच्चाई की हद पर रहना।
आप खुद देखिए, हम इंसान बड़े हैं, हम सवाल करते हैं, जवाब ढूंढते हैं। क्या हम सबसे बड़े सवाल का जवाब दे सकते हैं? क्या जिंदगी का कोई मतलब है? आपको शायद तो फिलॉसफी का जवाब देगा, मगर मैं जानता हूं कि फिलॉसफी तो खत्म हो चुकी है। मेरे हिसाब से विज्ञान इसका जवाब दे सकता है। विज्ञान ने सब कुछ बदल दिया है, सिर्फ हमारे आसपास की दुनिया ही नहीं, खुद को देखने के हमारे नजरिए को भी। हम इन खोजों के बारे में जो भी कहें, कम ही होगा।
सबसे पहली बात, इन्होंने हमें अपनी कॉमन सेंस भी पीछे छोड़ने पर मजबूर कर दिया है। जब हम इंसान को स्पष्ट रूप से देखते हैं, तो हमें एक बेमिसाल जीवन नजर आता है। हम जीते हैं, प्यार करते हैं, और जिंदगी का मजा लेते हैं। कभी-कभी कानून भी तोड़ते हैं, और गलत हरकतें करने लगते हैं। हम सब की उम्मीदें, सपने, और इच्छाएं होती हैं।
जीवन का अर्थ: भौतिकी के नियम
मगर जिंदगी का मतलब जानने से पहले हमें यह बात मान लेनी होगी कि यह सब फिजिक्स के अलावा कुछ भी नहीं है। आप खुद देखिए, पूरा ब्रह्मांड कुदरत के नियमों से चलता है, जैसे कि गुरुत्वाकर्षण। यह नियम हर चीज पर नियंत्रण रखते हैं, चाहे वह परमाणुओं के अंदर की हरकतें हों या विशाल तारामंडल का एक दूसरे से टकराना। मेरी समझ में नहीं आता कि हम इंसान इन नियमों से अछूते कैसे रह सकते हैं? आखिर हम भी तो उन्हें बुनियादी चीजों से बने हैं, और उन्हें सिद्धांतों पर कम भी करते हैं। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है यह समझाना कि हम इंसान क्या हैं और किस तरह से हम छोटे और मामूली से, जी उसे विशाल, प्राचीन, और ज्यादा खूबसूरत ब्रह्मांड से जुड़े हैं, जिसने हम सबको बनाया है। उसके बाद ही हमें पता लग पाएगा कि हमारी जिंदगी का कोई मतलब है या नहीं, और शायद यह भी कि वह मतलब क्या है।
रने डेकार्त: चेतना और वजूद का रिश्ता
इस अनूठे सवाल का जवाब पाने की पहली कोशिश की थी, उसे शख्स ने जिसका नाम था रने डेकार्त। को आधुनिक फिलॉसफी का पितामह। पर मेरी नजरों में तो वह विज्ञान के पितामह। डेकार्त ने पहली बार कहा था कि इंसान दो मूल चीजों से बना है: शरीर और दिमाग। उन्होंने शरीर की रचना के हिसाब से उसके चित्र बनाए। उनके हिसाब से हमारा शरीर एक जीव वैज्ञानिक मशीन है।
मगर उन्हें इस बात का पूरा भरोसा था कि दिमाग बिल्कुल अलग है। उन्होंने एक मामूली से थॉट एक्सपेरिमेंट से इसे साबित भी किया। उन्होंने कल्पना की कि उनका शरीर है ही नहीं, और वह एक भूत की तरह हवा में उड़ रहे हैं। यह बात भले ही अजीब लगे, पर ऐसा करना आसान था।
फिर यह कल्पना करने की कोशिश की कि उनका दिमाग भी नहीं है। मगर वह ऐसा कर नहीं पाए। जाहिर है, बिना दिमाग के आप कोई कल्पना कैसे कर पाएंगे? तब उन्होंने इसे एक लाइन में बताया: “मैं सोचता हूं इसलिए मेरा वजूद है।” वह मानते थे कि बुनियादी तौर पर शरीर और दिमाग दो अलग-अलग चीजें हैं। यह दोनों आपस में कैसे जुड़े हैं, इसका पता लगाकर ही हम यह जान पाएंगे कि जिंदगी के मतलब का वैज्ञानिक आधार क्या है।
रने डेकार्त और पीनियल ग्रंथि
इस मामले में भी डेकार्त अपने वक्त से काफी आगे था। उन्होंने कहा कि हमारा दिमाग हमारी रीड के ऊपरी किनारे पर बने एक छोटे से उभरे पीनियल ग्रंथि से जुड़ा होता है। हालांकि वह पूरी तरह से सही तो नहीं था, पर डेकार्त काफी करीब जरूर था। आज हम भी जानते हैं कि हमारा चेतन मन हमारे दिमाग की ही देन है। वह अंग इतना जटिल है कि मैं तो उसे तंग करने वाला मानता हूं।
दिमाग की जटिलता और न्यूरोसाइंस
इंसान का दिमाग हमारी उम्मीद से कहीं ज्यादा जटिल होता है। अगर यह ऐसा नहीं होता, तो हम शायद कुछ समझ भी नहीं पाते। हमारे ब्रेन सेल होते हैं जितने कि हमारी आकाशगंगा में तारे हैं, हजार करोड़। थोड़ा बहुत आगे-पीछे हो सकता है। जब यह आपस में जुड़ जाते हैं, तब हमारे ब्रह्मांड के तारामंडल से कहीं ज्यादा कनेक्शन बन जाते हैं। आप शायद यह भी कहें कि दिमाग का अध्ययन करना न्यूरोसाइंस का काम है। मगर चूंकि दिमाग भी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक जैसे बुनियादी बालों पर ही काम करता है, इसलिए सोच भी फिजिक्स की ही बात हो जाती है।
एक फिजिसिस्ट होने के नाते, मैं इंसान के दिमाग को भी ब्रह्मांड की एक सबसे अनोखी रचना मानता हूं। अगर हम यह जानने की कोशिश करें कि हमारा दिमाग किस तरह से ब्रह्मांड को समझता है, तब हम यह भी पता लगा लेंगे कि क्या इसका कोई मतलब भी है।
चेतना का विकास: एक अनसुलझी पहेली
प्राचीन यूनानियों ने सबसे पहले यह सवाल उठाया था कि क्या दिमाग भी कुदरत के नियमों से चलता है? यह एक ऐसी बात थी जो अगली 20 सदियों तक ठंडे बस्ते में पड़ी रही। आखिरकार, अगर हम सभी एक जैसे हैं, तो फिर जिंदगी का क्या मतलब है? शायद कोई मतलब नहीं है? नहीं, हमें इतनी जल्दी नहीं करनी चाहिए।
अब आप कैंब्रिज में ही इंसान के एक आम दिन को ले लीजिए। तीन लोग, कैम्ब्रिज नदी में एक सुहाने दिन का मजा ले रहे हैं। यह नदी कई कॉटेजों के बीच से होकर बहती है। इन लोगों का शरीर इनके दिमाग से नियंत्रित हो रहा है। और यह एक दूसरे से बात कर सकते हैं, एक दूसरे को और अपने आसपास के माहौल को समझ सकते हैं।
चेतना: वजूद का अर्थ और महत्व
यह एक गाना भी बजा सकते हैं, एक दूसरे से प्यार कर सकते हैं, इनकी दुनिया बेईमानी से नहीं, पाक, बिल्कुल अलग है। इनकी दुनिया का एक मतलब है। इनके लिए तो एक दूसरे को देखना भी एक मतलब रखता है। इस हद तक की लोग लापरवाह भी हो जाते हैं। वह मतलब कहां छुपा है? इसका पता लगाना शायद विज्ञान के लिए मुश्किल होगा कि हमारे अंदर चेतना क्यों है। ऐसे में आया विज्ञान का एक सबसे बड़ा सिद्धांत: क्रम विकास का सिद्धांत। हम यह तो जानते हैं कि पृथ्वी का हर जीव बड़े ही जटिल मॉलिक्यूल, अमीनो एसिड से बना है। जब यह मॉलिक्यूल एक दूसरे से बेहतर तरीके से टकराए, तब बना पहला जीव। कई शौक करोड़ साल के दौरान, उन जीवन का विकास हुआ, और आखिर में बने कई कोशिकाओं वाले, दिमाग वाले जीव। जटिल जीवन को दिमाग चाहिए, क्योंकि उसकी मदद से ही वह ज्यादा से ज्यादा जानकारी को प्रक्रिया कर सकते हैं। वह अपने आसपास की दुनिया के लिए प्रतिक्रिया करते हैं और आगे की सोचते हैं। जो जीव अपने माहौल को जितना जानता है, वह उतना ही ज्यादा कामयाब होता है। आखिरकार, चेतना इतनी विकसित हो गई कि हर जीव खुद को समझने लगा। हम भी वही हैं, ऐसे जीव जिसे विकास ने चेतना की शक्ति दी है।
चेतना और दिमाग: एक अनसुलझी पहेली
मगर ऐसा कैसे हो सकता है? एक बायोलॉजिकल ढांचा आखिर कैसे सोच सकता है, महसूस कर सकता है या किसी बात को मतलब दे सकता है? हो, इस सवाल का जवाब इतना आसान नहीं है, मगर चेतना के विकास से जुड़े कई सिद्धांत तो हैं। 1970 के दशक में एक मैथमेटिशियन, जॉन कन्वे ने कैंब्रिज में अनजाने में ही एक बड़ी खोज कर दी। उन्होंने गेम ऑफ लाइफ नाम का एक मामूली सा सिमुलेशन बनाया जिससे पता लगता था कि दिमाग जैसी एक जटिल चीज भी किस तरह से कुछ बुनियादी नियमों से चलती है।
गेम ऑफ लाइफ: एक सिमुलेशन
उस सिमुलेशन में एक ग्रिड थी, जो शतरंज के बोर्ड की तरह चारों दिशाओं में दूर-दूर तक फैल रही थी। उस ग्रिड का हर चौकान या तो रोशन था, जिसे वह जिंदा कहते थे, या उसमें अंधेरा था, जिसे वह मुर्दा कहते थे। कोई चौकान जिंदा है या मुर्दा, यह तय होता था उसके आसपास के आठ खानों में होने वाली हरकतों से। मिसाल के तौर पर, अगर इस जिंदा चौक खाने के आसपास कोई और जिंदा चौकान नहीं होगा, तो नियम के मुताबिक माना जाता था कि यह भी अकेलेपन से मुर्दा हो जाएगा। अगर एक जिंदा चौक खाने के आसपास तीन से ज्यादा जिंदा चौक खाने होते हैं, तो वह भी ज्यादा भीड़ की वजह से मर जाएगा। लेकिन अगर एक मुर्दा चौक खाने के आसपास तीन जिंदा चौक खाने हैं, तो वह भी रोशन हो जाएगा, उसका जन्म होगा। अगर हम रोशन या जिंदा चौक खानों का एक सेट ले लें और यह शुरू कर दें, तो उससे तय होगा कि भविष्य में क्या होगा।
गेम ऑफ लाइफ: जटिलता का निर्माण
नतीजे चौंकाने वाले थे। जब यह प्रोग्राम चला, तो अलग-अलग आकार अपने आप बनने और खत्म होने लगे। कई आकार एक दूसरे से टकराते हुए, ग्रिड के पार जाने लगे, मगर कई चीज, कई प्रजातियां ऐसी थीं जो आपस में संपर्क में थीं। कुछ तो अपनी संख्या भी बढ़ा रही थी, जैसे असली दुनिया में जब बच्चे जन्मते हैं। यह जटिल गुण बड़े ही बुनियादी नियमों से पैदा होते हैं, जिसमें चांस, या प्रजनन की बात तक नहीं होती।
हम यह मान सकते हैं कि गेम ऑफ लाइफ जैसी कोई चीज सिर्फ कुछ बुनियादी नियमों के सहारे, बड़े ही जटिल गुण पैदा कर सकती है। शायद बुद्धि भी। हो सकता है कि उसके लिए हमें ऐसी ग्रिड की जरूरत हो जिसमें कई 100 करोड़ चौक खाने हों, पर ऐसी ग्रिड मुमकिन है हमारे दिमाग में भी। तो कई हजार करोड़ कोशिकाएं हैं।
दिमाग: जटिलता और भौतिक आधार
इस लिहाज से मुझे तो यही लगता है कि इंसान का दिमाग जो मतलब पैदा करता है, वह एक विशाल, एक बड़े जटिल सिस्टम से पैदा होता है, और वह बड़े ही मामूली नियमों से चलता है। इसका मतलब है डेकार्त सही था, शरीर और दिमाग अलग हैं। शरीर और दिमाग भौतिक चीजों से बने हैं, दिमाग उसे लगातार बदलती चीज की ही देन है। हमारा शरीर हार्डवेयर है, हमारा दिमाग सॉफ्टवेयर, जिससे मैं आपसे अपनी बात कर रहा हूं।
इच्छा और नियति: एक जटिल रिश्ता
मगर इससे एक समस्या खड़ी होती है, हमारी इच्छा की समस्या। जब मैं छोटा था, तब मेरे पिताजी मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे, मगर मैंने फिजिक्स पढ़ना पसंद किया। अब लगता है कि मेरा फैसला सही था, क्योंकि अब जो स्थिति है, उसमें तुम्हें बड़ा ही बुरा डॉक्टर साबित होता। मतलब मैंने सही फैसला लिया था, या यह मेरी पसंद ही नहीं थी? शायद मैं अपनी इच्छा को लेकर भ्रम में हूं।
दिमाग और बिजली: नियंत्रण का सवाल
बात यह है कि अगर मेरा दिमाग कुदरत के सख्त नियमों से चलता है, तो जाहिर है कि मैंने जो रास्ता चुना था, वह पहले से तय था। सच तो यह है कि वैज्ञानिकों ने यह पता लगा लिया है कि हम जो भी फैसले लेते हैं, उनके ऊपर कई चीजों का असर होता है, जैसे कि बिजली। आप शायद मेरी बात का बुरा नहीं मानेंगे, अब मान लीजिए कि हम एक सर्जरी देख रहे हैं जिससे आवक ब्रेन सर्जरी कहते हैं, इससे स्नायुओं की बीमारियां ठीक की जाती हैं। इसमें दिमाग पर बिजली से चलने वाले प्रोब का इस्तेमाल किया जाता है। अगर हम दिमाग के सही हिस्से को बिजली से उत्तेजित करें, तो हमारे मन में हाथ, पैर, या चेहरा हिलाने की इच्छा पैदा होती है। इसके लिए सही जगह पर सिर्फ 3.2 वोल्ट की बिजली का इस्तेमाल करना पड़ता है। मरीज तो यही सोचता है कि वह फैसला उसने लिया है, मगर सच यह है कि फैसला डॉक्टर ने लिया है।
भविष्य में दिमाग का नियंत्रण: एक डरावनी संभावना?
हम यह कल्पना भी कर सकते हैं कि आने वाले दिनों में आधुनिक टेक्नोलॉजी की मदद से डॉक्टर किसी के दिमाग को अपने वश में कर लें, और शायद उसे प्यार भी करवा दें। मगर बेचारा इंसान तो यही सोचेगा कि वह अपनी मर्जी से वह सब कर रहा है। सच्चाई तो इसके उलट है। वह करामात होगी, उसके दिमाग में मौजूद फिजिक्स की।
बहुत से लोगों को यह सोच ही डरावनी लगती है, क्योंकि वह मानते हैं कि इससे हमारी इंसानियत ख़त्म हो जाएगी, और हम ना सिर्फ एक मशीन बन जाएंगे, बल्कि ऐसी मशीन बन जाएंगे जो बुरी ताकतों के हाथों की कठपुतली होगी। हो सकता है कि मैंने फिजिक्स और बायोलॉजी में से किसी एक को चुनने का फैसला किया ही ना हो। शायद फिजिक्स के नियमों ने पहले से ही मेरा कैरियर तय कर दिया था।
नियति और स्वतंत्रता: एक जटिल सवाल
शायद ऐसा ना हो? हम हमेशा कुदरत के नियमों से किसी बात का अंदाजा नहीं लगाते। हम हमेशा यह नहीं बता सकते कि पासा पर कौन सा अंक आएगा, जबकि यह पूरी तरह से फिजिक्स है। अगर हम उसे एक बड़े जटिल सिस्टम से जोड़ दें, तो किसी चीज का अंदाजा नहीं लगा पाना नामुमकिन होगा।
ऐसा एक सिस्टम देखने के लिए आपको घर से बाहर निकलना होगा। आप यह तो जानते ही हैं कि हम हमेशा लगातार बदलते मौसम पर नजर रखते हैं, खासकर जब हम गर्मियों में दावत देने वाले हों। कितना अच्छा होगा अगर हमें मेहमानों को बुलाने से पहले यह पता लग जाए कि मौसम सुहाना रहेगा।
मौसम और जटिल प्रणालियां
सुहाने दिन का अंदाजा लगाना बड़ा ही आसान है। हम यह तो जानते हैं कि हमारा वायुमंडल किस तरह से गर्मी और दबाव पर प्रतिक्रिया करके बदलता है, और गरज, तूफान पैदा करता है। मगर यह भी सच है कि हम चाहे लाख कोशिश कर लें, पर यह नहीं बता सकते कि किसी खास जगह पर एक खास वक्त पर मौसम कैसा रहेगा।हम मौसम की भविष्यवाणी अक्सर मामूली से मॉडलों से करते हैं, मगर वह हर छोटी से छोटी बात का ध्यान नहीं रख सकते।
तितली प्रभाव और जटिल प्रणालियां
मगर उन छोटी-छोटी बातों के अंजाम काफी बड़े होते हैं। हो सकता है कि अमेज़न में एक तितली पंख फड़फड़ा रही हो, और यहां आपकी दावत पर पानी फिर जाए। यह बड़ा ही जटिल सिस्टम है। मुझे लगता है कि हमारा दिमाग भी एक जटिल सिस्टम है। पृथ्वी के वायुमंडल की तरह हम भी फिजिकल नियमों से चलते हैं, पर हमारे बारे में भी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।
दिमाग: एक जटिल प्रणाली और इच्छा की वास्तविकता
दिमाग भी हमारे सर के अंदर के मौसम जैसा ही है। हमारी इच्छा वह प्रक्रिया है जो उस वक्त सामने आती है जब इस बड़े ही जटिल सिस्टम के सामने एक पसंद आती है। मैं आपको यह बात समझाता हूं। आप यह सोचिए कि एक आदमी रात में जागता है और उसे प्यास लगती है। अब मान लीजिए कि इंसान के दिमाग के बारे में मेरी राय सही है, और इंसान का दिमाग कुदरत के नियमों से चलता है।
इच्छा और निर्णय: नियमों के दायरे में?
अब उसमें हमारी मर्जी कहां आती है? चलिए हम उसे कुछ चुनने का मौका देते हैं। वह प्यास बुझाने के लिए संतरे या सेब का रस पी सकता है। जैसे ही उसे सेब के रस की गंध मिलती है, उसके न्यूरॉन जाग उठते हैं और उसकी पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। उसे सेब के बाग में बिताए वह सुनहरे पल याद आ गए। वह फौरन फैसला कर लेता है।
इच्छा और निर्णय: कुदरत के नियमों का खेल?
उसका फैसला हैरान भी नहीं करता। वह तय कर लेता है, उसकी पसंद है। पीछे देखें, तो मैंने भी एक फिजिसिस्ट बनने का फैसला किया था। मैं उसके बारे में यही कह सकता हूं कि वह मेरी इच्छा थी। क्योंकि इच्छा भी एक जटिल फिजिक्स है, और वह तब काम करती है जब हम कोई फैसला करते हैं।
जीवन का अर्थ: सच्चाई और वास्तविकता
लेकिन अगर हमारी पसंद सिर्फ फिजिक्स है, तो कहीं ऐसा तो नहीं कि हम खुद भ्रम में हैं और जिंदगी का कोई मतलब ही नहीं है? इसका जवाब पाने के लिए हमें और गहराई में जाना होगा, और कुदरत की सच्चाई पर ही सवाल उठाने होंगे।
सच्चाई… हमेशा लोग सच्चाई के बारे में एक अह्मदर्ना रखते हैं। हमारे आसपास की दुनिया हमारे सहारे नहीं है। उसमें कई ऐसी चीजें हैं जो असल में वहां हैं, मगर विज्ञान हमारी इस बुनियादी राय से ही पर्दा हटाने की कोशिश कर रहा है, और वह जिंदगी का मतलब जानने की कोशिश कर रहा है।
सच्चाई: एक निजी अनुभव
अब इस छोटी सी लड़की को ही ले लीजिए जो मांजा, इटली के एक भीड़ भरे बाजार में घूम रही है। उसके लिए हकीकत है आवाज़, रंग, स्वाद, और गंध, जो आधारित है उन जानकारी पर जो उसकी इंद्रियां उसके दिमाग को भेज रही हैं। अगर हम यह मान लें कि दिमाग भी हमारे सर के अंदर एक मौसम व्यवस्था जैसा ही है, जो फिजिक्स से चलता है, पर उसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, इससे सच्चाई अपने आप ही टूटने लगती है।
सच्चाई: एक व्यक्तिगत अनुभव
वह सबके लिए अलग-अलग होती है। मेरे लिए जो हकीकत है, वह शायद आपकी या इस मछली की ना हो। इस मछली की हकीकत तो इस गोलफिश बॉल तक ही सीमित है, हर चीज बंद और ढकी हुई। मुझे नहीं लगता कि एक सच्चाई दूसरे से बेहतर होती है।
सच्चाई: दिमाग का निर्माण
इसका मतलब है कि सच्चाई देखने वाले के दिमाग में होती है। जब हम इसके बारे में सोचते हैं, तो लगता है कि हमारा नजरिया पूरी तरह से सही नहीं है। हमें तो यही लगता है कि इंसान की आंखें हमारे आसपास की दुनिया को अच्छी तरह से देख लेती हैं, मगर हमारी यह सोच भी सही नहीं है। हमारी आंखें एक बहुत छोटी सी जगह को ही अच्छी तरह से देख पाती हैं, हाथ भर, हमारे अंगूठे के बराबर की जगह को।
दिमाग: सच्चाई का निर्माण
हमारी आंखें हमारे दिमाग की ऑप्टिक नर्व को बिजली के सिग्नल भेजती हैं। जहां यह नर्व हमारी आंखों से जुड़ती है, उसे जगह का मतलब है कि हमारी आंखों में ब्लाइंड स्पॉट दो होते हैं। मगर हम दो ब्लैक होल से अपनी धुंधली दुनिया को नहीं देखते। इसकी वजह है हमारा एक बेहतरीन अंग जिसे दिमाग कहते हैं। हमारा दिमाग सभी दरारें भर देता है, और वह आंखों से आने वाले मामूली से सिग्नलों को बाहर की दुनिया के एक थ्री डाइमेंशनल मॉडल में बदल देता है।
सच्चाई: दिमाग द्वारा निर्मित मॉडल
हम इन्हीं मानसिक मॉडलों को सच्चाई कहते हैं, मगर यह बात जानकर हम जिंदगी का मतलब समझने के और कितने करीब पहुंचेंगे? देखिए, पहले तो यह एक बुरी खबर लग रही थी।
सच्चाई का स्वरूप: एक बड़ा सवाल
अगर सच्चाई भी हर इंसान के दिमाग में बना एक मॉडल ही है, तो फिर वह मतलब कहां से मिलेगा? इसका मतलब है कि दुनिया में सच्चाई जैसी कोई चीज ही नहीं है? यह बात भले ही अजीब लगती हो कि सच्चाई के बारे में हमारी राय पर शक करना सही है, मगर मुझे लगता है कि जिंदगी का मतलब जानने के लिए हमें इस सवाल का जवाब ढूंढना ही होगा कि स्वतंत्र सच्चाई है भी या नहीं?
सिमुलेशन थ्योरी: एक कल्पना
चलिए अब हम एक विज्ञान कथा फिल्म का एक माहौल ले लेते हैं। हमारे आसपास की दुनिया असल में किसी अलौकिक दिमाग की बनाई एक बहुत बड़ी व्यवस्था है, एक विशाल सुपर कंप्यूटर। हमें हर तरह की इंद्रियां देता है जिससे हम देखते, सुनते या महसूस करते हैं।
सिमुलेशन थ्योरी: वस्तुत्व का सवाल
मगर सच तो यह है कि हमारे पास इंद्रियां है ही नहीं, हमारे शरीर का वजूद नहीं, हम सिर्फ एक मर्तबान में बंद दिमाग हैं। बात भले ही अजीब सी लगती हो, पर यह एक वैज्ञानिक सिद्धांत है, सिमुलेशन थ्योरी। हम अब इतना जटिल सुपर कंप्यूटर से दी गई है। और वह सिमुलेशन इतना सटीक होता है कि हमें उसका अंदाजा भी नहीं होता। मगर अब सुनिए असली बात। इससे खास फर्क नहीं पड़ता। डेकार्त की बात सही थी, हम सोचते हैं, इसलिए हमारा वजूद है।
जीवन का अर्थ: सिमुलेशन और वास्तविकता
यह हैमबर्गर भी शायद एक कंप्यूटर कोड से ज्यादा कुछ नहीं है। मगर उसे खाने का मन हमारी इच्छा है, हमें भूख महसूस होती है। हम भले ही सिमुलेशन में हों, पर हमारा दिमाग है। इसलिए…
जीवन का अर्थ: सच्चाई की सीमाएं
सच्चाई की असलियत पर शक करने से कुछ नहीं मिलने वाला, हमें यह मान लेना चाहिए कि हम जो भी जान सकते हैं, उसकी कुछ बुनियादी सीमाएं हैं। मिसाल के तौर पर यह टेबल ले लीजिए। हमें यह कैसे पता लगेगा कि जब हम बाहर हैं, तब यह टेबल कमरे के अंदर ही है, जबकि हम उसे देख भी नहीं सकते? यह भी तो हो सकता है कि टेबल कमरे से बाहर निकल जाए, हो सकता है कि वह इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर पहुंच… पर भी पहुंच जाए। इतनी लंबी सैर के बाद, वह शायद उसके पहले ही कमरे में लौट आए, जब आप कमरे के अंदर आते हैं। माना कि ऐसा शायद ही हो सकता है, पर हो तो सकता है।
सच्चाई: मानसिक मॉडल और वैज्ञानिक सिद्धांत
हम तो यही मानते हैं कि जब हम कमरे में नहीं हैं, तब भी टेबल वहीं पर थी। सच्चाई को मानने का हमारा यही बेहतरीन मॉडल है। हम विज्ञान में भी तो यही करते हैं। हम ब्रह्मांड के काम करने के तरीके के बारे में अपना एक मॉडल बना लेते हैं।
ब्रह्मांड के मॉडल: विकास और बदलाव
प्राचीन यूनानियों ने सबसे पहले ऐसा कोई वैज्ञानिक मॉडल बनाया था। उन्होंने कहा था कि पृथ्वी एक बड़ा सा गोला है जो घूमती नहीं है, बल्कि ब्रह्मांड के केंद्र में स्थिर है।
मगर बाद में कोपरनिकस और गैलीलियो जैसे विज्ञान के पितामह ने उनकी बातों के लिए एक बिल्कुल मामूली सा, मगर बड़ा ही अनोखा मॉडल बनाया। उन्होंने कहा कि पृथ्वी अपनी जगह पर घूम रही है, और साथ ही साथ दूसरे ग्रहों के साथ सूरज का चक्कर भी लगा रही है।
सच्चाई: मॉडल और वास्तविकता
मगर दोनों ही रायों को सही नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह भी मॉडल थे। और हर मॉडल की तरह, वह भी वैसे ही मॉडल थे जो हमारे दिमाग ने हमारी सोच के आधार पर बना लिए थे।
सच तो यह है कि हम फिजिसिस्ट, हमेशा ऐसे मॉडल बनाते रहते हैं, मगर उन मॉडलों की सच्चाई को साबित कर पाना नामुमकिन है। इसका एक अच्छा उदाहरण मिला, 1960 के दशक में, जब फिजिसिस्ट ने बेहद छोटे-छोटे कणों, यानी क्वार्क का सिद्धांत दिया।
क्वार्क: एक मॉडल और वास्तविकता
उनका कहना था कि उन क्वार्क से ही बेहद छोटे कण, प्रोटॉन, बने हैं। उससे बनाया गया मॉडल के मुताबिक, यह क्वार्क एक बल के जरिए एक दूसरे से जुड़े रहते हैं, और उन्हें अलग करने की जितनी ज्यादा कोशिश की जाती है, वह बल बढ़ता जाता है। मानो वह क्वार्क छोटे-छोटे रबर बैंड से बंधे हों। इस मॉडल का यह मतलब भी था कि कोई एक अकेले क्वार्क को कभी देखी नहीं सकता।
क्वार्क: एक सिद्धांत की वैधता
पहले तो कुछ लोगों ने शक किया, जब कोई चीज कभी दिख ही नहीं सकती, तो क्या हम कह सकते हैं कि वह है क्या? यह कहना सही होगा कि क्वार्क असल में हैं? मौजूद है, इस विशाल पार्टिकल एक्सीलरेटर की मदद से वैज्ञानिक उनको, और दूसरे सूक्ष्म कणों का पता लगाने में जुटे हैं। बेहद तेज रफ्तार पर प्रोटॉन को आपस में टकराकर हम कुदरत के सबसे छोटे कणों के व्यवहार का पता लगा सकते हैं। हालांकि हम अभी तक सीधे-सीधे क्वार्क को तो नहीं देख पाए हैं, मगर हमने उस मॉडल में बताएं, उन कणों के व्यवहार को जरूर देखा है।
मॉडल आधारित सच्चाई
तो क्या… वाकई है? जवाब है कि वह वाकई है, मगर जब तक वह मॉडलों में है, तभी तक सही है। हम इससे ज्यादा नहीं जानते। इसे कहते हैं “मॉडल आधारित सच्चाई” का विचार। मुझे लगता है कि इसके सहारे हम जिंदगी की सच्चाई तक पहुंच सकते हैं।
जीवन का अर्थ: विज्ञान की खोजें और सच्चाई का स्वरूप
मैं तो यही मानता हूं कि विज्ञान ने हमें एक बड़ी अच्छी चीज दिखाई है। हम इंसान असल में बहुत ही जटिल बायोलॉजिकल मशीन हैं, जो कुदरत के नियमों से चलती है। हमारे दिमाग में एक दूसरे के संपर्क में रहने वाले न्यूरॉन का एक असाधारण नेटवर्क से हमारा चेतन मन बनाया है। वह चेतन मन ही हमारी आसपास की दुनिया का एक थ्री डाइमेंशनल मॉडल बनाता है, एक ऐसा मॉडल जिसे हम सच्चाई कहते हैं।
ब्रह्मांड की खोजें और सच्चाई का विस्तार
मगर सच्चाई उतनी ही नहीं है जितनी हम रोजमर्रा की जिंदगी में अपने आसपास देखते हैं। जमीन और अंतरिक्ष में लगी दूरबीन की एक श्रृंखला ने हमारी इंद्रियों को नई ऊंचाइयां दी हैं, और उनकी मदद से हम गहरे अंतरिक्ष में झांक कर पहले से कहीं ज्यादा बड़ा मॉडल बना सकते हैं। हम जैसे-जैसे ब्रह्मांड की गहराइयों में झांकते गए, हमारी सच्चाई भी लगातार बड़ी से बड़ी होती गई।
ब्रह्मांड का इतिहास और जीवन का अर्थ
एक वक्त पर, जहां हम आसमान में कुछ दरारें देखते थे, वहां अब अपने सूरज जैसे तारे देख रहे हैं, जिसमें से कई के अपने ग्रह और चांद हैं। फिर हमें दूर-दराज के तारामंडल दिखे, जिसमें और कई 100 करोड़ तारे थे। हमने अपने अतीत में भी झांका, और ब्रह्मांड के जन्म को भी देखा। यह सब हमारे ब्रह्मांड का 1370 करोड़ साल पुराना इतिहास, हमारे दिमाग में एक मॉडल की तरह कैद है।
जीवन का अर्थ: एक व्यक्तिगत अनुभव
मगर जिंदगी का मतलब ढूंढने की कोशिश में यह हमें कहां ले जाएगा? इसका जवाब, मेरी नजरों में बिल्कुल साफ है। वह मतलब भी असल में सच्चाई के उसे मॉडल का ही एक हिस्सा है जिसे हम अपने दिमाग में बनाते हैं।
जीवन का अर्थ: सच्चाई, भावनाएं और मतलब
अब इस मन और बच्चे को ले लीजिए। ये दोनों अपने चेतन मन में सच्चाई का अपना-अपना मॉडल बनाते हैं। बच्चा अपने आसपास की जगह का मॉडल बड़ी बारीकी से बनाता है। मगर वह शायद यह नहीं जानता कि वह अभी पांचवीं मंजिल पर है। मन का दिमाग भी सच्चाई की एक तस्वीर बनाता है। उसके लिए तो अपने बच्चे के लिए उसका प्यार उतना ही सच्चा है, जितना कि उसके हाथ में मौजूद फोन।
दिमाग: सच्चाई और भावनाओं का निर्माण
यह भी कह सकते हैं कि हमारा दिमाग सिर्फ सच्चाई का ही अंदाजा नहीं लगाता, वह हमारी भावनाओं और मतलब का भी अंदाजा लगाता है। प्यार और सम्मान, सही और गलत, यह सब उसके ब्रह्मांड का हिस्सा है जिसे हमने अपने दिमाग में बनाया है।
एक तारामंडल… यह बड़ी अनोखी बात है कि हमारा दिमाग, जो असल में कणों का एक संग्रह है, वह फिजिक्स के नियमों से चलता है और वह ना सिर्फ सच्चाई का अंदाजा लगाता है, बल्कि उसे मायने भी देता है।
जीवन का अर्थ: ब्रह्मांड और व्यक्तिगत मायने
जीवन का अर्थ वही है जो आप इसे देना चाहते हैं। कि हम सभी ब्रह्मांड को मायने दे रहे हैं।
खगोल शास्त्री कार्ल सागन ने एक बार कहा था, “हम सभी ब्रह्मांड का ही एक रूप हैं।”
जीवन का अर्थ: दिमाग और सृजनशीलता
जीवन का मतलब सिर्फ हमारे दिमाग की हदों में ही रह सकता है। हम यह भी कह सकते हैं कि जिंदगी का मतलब कहीं और नहीं, हमारे दिमाग में ही छिपा है। इसलिए, हाथ से कई मायनों में, हम सबसे बड़े रचयिता हैं।
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